बतोलेबाज़
...बड़े बड़ाई न करें, बड़े न बोले बोल, रहिमन हीरा कब कहे, लाख टका मेरो मोल...

क्या यही है महानगर ?

11:59 am



ऊंची इमारतों के बीच,
अंतहीन सड़कों पर,
ना जाने किसे पीछे करने की होड़ में,
लोग भागते जा रहे हैं।
कंक्रीटों से बने
मजबूत इमारतों के बीच,
रिश्ते भी क्या मजबूत होते हैं ?
न जाने कितने बंधन छूटे,
न जाने कितने रिश्ते टूटे,
पर लोग भागते जा रहे हैं।
बड़े शहर का,
बड़े डगर का,
दिल भी बड़ा क्या होता है ?
न जाने कितने वादे झूठे,
न जाने किसने चैन लूटे,
पर लोग भागते जा रहे हैं।
बड़ा बनना है समय से पहले,
खुद की नजर में उठ भी नही सकते,
सीना फूलाए हैं
शर्म कहीं खो गया है !
न जाने किसका चमन उजड़ा,
न जाने किसका अमन बिखड़ा,
पर लोग भागते जा रहे हैं।
देख कर इन बेतरतीब हादसों को,
याद आता है गांव मेरा,
फिर होले से दिल पूछता है ये,
क्या यही है महानगर ?
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एक और शुरुआत

10:28 am

धरती की गोद में
फिर एक कोंपल निकलना चाहती है
उसे नहीं मालूम कि कई घने पेड़
उसे धूप तक मयस्सर नहीं होने देंगे
ज़मीन की नमी को सोख लेंगे
मीलों तक जड़ों को फैलाकर
इलाके पर अपना वर्चस्व जताएंगे

फिर भी कोंपल जन्म लेना चाहती है
अपनी ज़मीन, अपना आसमान चाहती है
झाड़ और सूखे पत्तों के बीच कुछ बची नमी
और झुरमुटों के बीच से आती धूप से
एक दिन पेड़ बनने की ख़्वाहिश रखती है

कोंपल जो बड़ी होकर, लोगों को छांव देगी
जिस धरती से फूटी है, उसे टिकने का ठांव देगी
फलों-फूलों-सुगंध से जीवन का संचार देगी
परिंदों को घोंसला और हमें जीवन का सार देगी।
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बतोलेबाज़

मेरी फ़ोटो
जन्म: गंगा के किनारे बसे शहर पटना(बिहार)में, शिक्षा: माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं जनसंचार विवि(भोपाल) से जनसंचार में पोस्ट ग्रेजुएशन, पत्रकारिता:साल 2004-05 में केबल चैनल बिहार न्यूज़ के लिए रिपोर्टिंग-एडिटिंग, 2005-07 के दौरान स्वतंत्र लेखन, 2007-08 ईटीवी में कॉपी एडिटर के तौर पर, फिलहाल ज़ी 24घंटे छत्तीसगढ़ में एसिस्टेंट प्रोड्यूसर के पद पर... सीखने का सिलसिला जारी

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